‘बरखा अंतर्मन छू जाए '
रिमझिम बूँदें साथ पवन का
ख्याल
तुम्हारा क्यूँ न आये
कुछ
शीतल सी कुछ भीगी सी
हाँ, ये
पवन है कुछ हलकी सी
याद है
कुछ बीते लम्हों की
क्यूँ न
फिर ये मौसम भाए
झुकता हरसिंगार
हवा से
जैसे
मैं शर्माऊ तुमसे
कुछ है
तुममे और पवन में
तन मन
जो शीतल कर जाए
दूर गगन
में हुई कालिमा
मोती
बिखरे हर पत्ते पे
व्याकुल
काले मेघ चलें यों
जैसे कि
आलिंगन चाहें
अब तो
बूँदें ठहर चुकी हैं
कुछ
बादल में, कुछ पत्तों पे
पर ये
हवा , हल्के से छूकर
तेरा ही
एहसास कराये
अब कैसे इनकार करूँ कि
बरखा अंतर्मन छू जाये
बरखा अंतर्मन छू जाये
.................
..................नीना शैल भटनागर
बहुत ही खूबसूरत रचना ...वर्षा की बून्दों में भीगी हुई....:)
ReplyDeleteशुक्रिया :)
Deleteवाह बेहतरीन … रचना
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